दीन-हीन
लाचार और मजबूर
हमने जिनको
कर रखा था
समाज से बहिष्कृत...
जिनके ज़ख्म
उनके पिछले जन्म
के पापों के फल थे
हाथों-पैरों का बिगड़ापन
और बदसूरत सूरत...
कोढ़ी होने की
गाली...घर परिवार
की नफ़रत भरी नज़र..
घर..गली..बस्ती
शहरों से मीलों की दूरी..
गंधाते सड़े-गले
इंसान की जानवरों
सी बदतर ज़िंदगी..
हम जिन्हें
ज़िंदा नहीं समझते
वो मां के आंचल में
नवजात से रहे...
करुणा...संवेदना
इंसानियत की छांव में
हरपल मुस्कराते रहे
मां के प्यार, पवित्रता में
अब मत कुछ और तलाशो
कुछ कर सकते हो तो
समाज और अपने दिमाग से
बढ़ रहे कोढ़ को हटा दो...
1 टिप्पणी:
मार्मिक कविता..
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