गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

शब्द नहीं मिलते...



ना जाने
कितनी बार ऐसा हुआ
कि मैं लिखते-लिखते रह गई
तुम्हारे-मेरे बारे में
एहससात से भरा हुआ रिश्ता
ज़ज़्बातों से लबलेज़ हम तुम
फिर क्यों
बयां नहीं कर पाती
कुछ भी हमारे बारे में
कैसे मिले थे हम-तुम
कहां हुई थी पहली मुलाकात
क्या कहा था तुमने मुझसे पहली बार
वो हर इक बात
जो तुमसे-मुझसे जुड़ी थी
वो तुम्हारा दिया तोहफ़ा
वो खुशी का लम्हा
वो गिले वो शिकवे
वो नाराज़गी
वो आंसू
वो सदियों की जुदाई
कुछ भी नहीं लिख पाती
बयां नहीं कर पाती कुछ भी
लफ्ज़ हमेशा से कम थे
हमारे दरमियां
कहां बोले कभी
खुल के एक दूसरे से
शब्द तो आज भी नहीं
मेरे पास
तभी तो
ना जाने
कितनी बार ऐसा हुआ
कि मैं लिखते-लिखते रह गई
तुम्हारे-मेरे बारे में



मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

अपने हिस्से का चाँद...



अपने हिस्से का चाँद
तुम्हारे शहर भेजा है
वो चाँद जो हमारे
इश्क़ का गवाह है
वो चाँद ...

जिससे रौशन थी हमारी दुनिया
वो चाँद
जो हमारी खुशियों का
साझेदार है
वो चाँद
जो हमारी ज़िन्दगी का
राज़दार है
वो चाँद
जो ख़फ़ा था
हमारे झगड़े पे
वो चाँद
जो उदास था
हमारे आंसुओं के संग
वो चाँद
जो ग्रहण में खो गया था
हमारे जुदा होने पे
अपने अपने हिस्से का चाँद
ले आये थे हम
वही अधूरा चाँद भेजा है
तुम्हारे शहर
शायद ये चाँद ले आये
तुम्हारी कोई ख़बर
हम दोनों का चाँद बन जाए
खुशियों का सबब....