मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

दग़ाबाज़ दोस्त....

कितने प्यार से
कितने अपनेपन से
तुमने दिया है धोखा
सबसे करीब होने का
दावा भी किआ था तुमने
अपने हर ज़ख़्म को
खोल के दिखाया था तुम्हें
अपने हर दर्द का
सांझेदार माना था तुम्हें
नम आँखों को दुनिया
से छुपाया हर दम
एक तुम ही थी
जिसे अपने अंदर की
बवंडर से मिलवाया था
आज हैरान हूँ
समझ नहीं पा रही
कि तुमने ऐसा क्यों किआ
मेरी पीठ पे छुरा क्यों घोंपा
तुम तो मेरी दोस्त थी
फिर क्यों
मेरे दर्द का
मेरी ज़िन्दगी का
तमाशा बना दिआ
गलती तुम्हारी नहीं
शिकायत खुद से है
मैंने तुमपे ऐतबार जो किआ
जाओ खुश रहो तुम
जाओ और तमाशा बनाओ तुम
लेकिन याद रखना
मुझसे मेरे हिस्से कि
खुशियां कोई नहीं छीन सकता
तुम भी नहीं
मेरी सबसे अच्छी दग़ाबाज़ दोस्त....