सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

बार बार देती हूं दस्तक


अपने 
आत्मसम्मान को 
फेंक देती हूं 
नोंच कर...
ज़ोर से बांधकर 
किसी पोटली में
रख देती हूं
सारी नाराज़गी...
जवाब की उम्मीद
किए बगैर ही
खत्म कर दिए 
सारे सवाल...
सच तो 
ये है कि 
मैं रह तो सकती हूं
तुम्हारे बगैर
लेकिन 
डर इस बात का है
कि तुम्हारे पास 
कोई नहीं होगा
जो तुम्हारे 
अहंकार को सह पाएगा
कोई नहीं होगा
जो तुम्हारी 
अनकही बातों को
सुन पाएगा...
कोई नहीं होगा
जो तुम्हारी
खामोशी पढ़ पाएगा
मैं डरती हूं
तुम्हारे तन्हां
होने से...
मैं घबराती हूं
तुम्हारे 
तुम में खोने से
इसलिए
मैं बार-बार
खलल डालती हूं
तुम्हारे एकेलेपन में
इसलिए
मैं बार-बार
दस्तक देती हूं
तुम्हारे दिल पर...
इसलिए
मैं बार-बार
देती हूं दस्तक...

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