गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

शब्द नहीं मिलते...



ना जाने
कितनी बार ऐसा हुआ
कि मैं लिखते-लिखते रह गई
तुम्हारे-मेरे बारे में
एहससात से भरा हुआ रिश्ता
ज़ज़्बातों से लबलेज़ हम तुम
फिर क्यों
बयां नहीं कर पाती
कुछ भी हमारे बारे में
कैसे मिले थे हम-तुम
कहां हुई थी पहली मुलाकात
क्या कहा था तुमने मुझसे पहली बार
वो हर इक बात
जो तुमसे-मुझसे जुड़ी थी
वो तुम्हारा दिया तोहफ़ा
वो खुशी का लम्हा
वो गिले वो शिकवे
वो नाराज़गी
वो आंसू
वो सदियों की जुदाई
कुछ भी नहीं लिख पाती
बयां नहीं कर पाती कुछ भी
लफ्ज़ हमेशा से कम थे
हमारे दरमियां
कहां बोले कभी
खुल के एक दूसरे से
शब्द तो आज भी नहीं
मेरे पास
तभी तो
ना जाने
कितनी बार ऐसा हुआ
कि मैं लिखते-लिखते रह गई
तुम्हारे-मेरे बारे में



1 टिप्पणी:

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत ही खूबसूरत अल्फाजों में पिरोया है आपने इसे... बेहतरीन