गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

तुम्हें तो शर्म भी नहीं आती...

सावन में हम
झूम के नाचे तो
क़त्ल कर दिए गए
घर से पाओं
बहार निकले तो
बेड़ियाँ दाल दी गईं
किसी के संग
मुस्कराए तो
बदचलन करार दिए गए
तुम्हारे प्रस्ताव को ठुकराया
तो तेज़ाब डाल दिया गया
इश्क जो कर लिया तो
इज्ज़त के नाम पे
गला दबा दिया गया
घर में रोटी नहीं
हुई तो
बेंच दिए गए
पहले कॊख में
मारने की कोशिश
और जन्म लिया तो
मिटटी में दबा दी गई
घिन नहीं आती तुम्हें
हम वंश जननते हैं
तुम्हारे ज़ुल्म सहते हैं
शुक्र तो कभी किया नहीं
तुमने हमारा
तुम्हें तो शर्म  भी
नहीं आती अपने किये पे

11 टिप्‍पणियां:

इज़हार हसन खांन ने कहा…

बहुत अच्छा लिखती है आप.....:)

avid ने कहा…

बहुत बढ़िया निदा|

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बहुत ही संवेदनशील रचना

सादर

Nidakiaawaaz ने कहा…

Shukria

Parul Chandra ने कहा…

वाह.. क्या खूब लिखती हो...

कौशल लाल ने कहा…

संवेदनशील....बहुत बढ़िया

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

बाह ! बहुत सुन्दर लिखा है आपने !
नई पोस्ट विरोध
new post हाइगा -जानवर

Satish Saxena ने कहा…

बढ़िया अभिव्यक्ति !!

Prakash Jain ने कहा…

thoughtful...
bahut achha likha hai

Nidakiaawaaz ने कहा…

Shukria...

Onkar ने कहा…

विचार-योग्य कविता